सुप्रीम कोर्ट ने अबेटमेंट ऑफ सुसाइड के एक केस में आरोपी बनाए गए पति की याचिका फैसले ने कहा कि किसी भी व्यक्ति को शादी के सात साल के भीतर आत्महत्या के लिए उकसाने का दोषी तब तक नहीं ठहराया जा सकता, जब तक कि उत्पीड़न या क्रूरता के ठोस सबूत न हों। सर्वोच्च न्यायालय ने आरोपी पति को बरी करने के आदेश सुनाते हुए यह टिप्पणी की। आरोपी पति पर तीन दशक पहले अपनी पत्नी को आत्महत्या के लिए उकसाने का आरोप था।
भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 113ए उन मामलों में पति और ससुराल वालों की ओर से उकसाने की धारणा को तब सिद्ध होती है, जब महिला ने शादी के सात साल के भीतर आत्महत्या की हो और उसके साथ क्रूरता की गई हो।
अभियोजन पक्ष के मुताबिक, आरोपी पति ने 1992 में शादी की थी। शादी के तुरंत बाद पति और उसके माता-पिता ने पैसे की मांग शुरू कर दी। पति राशन की दुकान खोलना चाहता था। उसने पत्नी से कहा कि वो मायके से पैसे लेकर आए। जब वो ऐसा करने में नाकाम रही तो उसका उत्पीड़न किया जाने लगा। अंततः पत्नि ने 19 नवंबर 1993 को जहर खाकर आत्महत्या कर ली। अभियोजन पक्ष ने कहा कि उसने अपने पति के उत्पीड़न के कारण ही आत्महत्या की थी।
हरियाणा राज्य के करनाल जिला अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश ने 1998 में व्यक्ति को भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 306 के तहत व्यक्ति को दोषी ठहराया था। इसके बाद पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने इस फैसले को बरकरार रखा था।
पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के आदेश के खिलाफ आरोपी पति ने, सर्वोच्च न्यायालय में अपील दाखिल की। सुप्रीम कोर्ट ने केस के सभी फैक्ट्स को चेक किया और अभियोजन के तर्क और बचाव पक्ष की दलीलों को सुनने के बाद कहा कि आईपीसी की धारा 306 (आत्महत्या के लिए उकसाना) के तहत किसी व्यक्ति को तभी दोषी ठहराया जा सकता है, जब किसी अपराध के लिए उसका स्पष्ट आपराधिक इरादा हो।
सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति जेबी पारदीवाला और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा की पीठ इस मामले पर सुनवाई कर रही थी। पीठ ने कहा, आरोपी पति को आत्महत्या के लिए उकसाने का दोषी ठहराने के लिए महज उत्पीड़न के आरोप पर्याप्त नहीं हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा, अदालतों को शादी के सात साल के भीतर महिला को आत्महत्या के लिए उकसाने के मुकदमों में कानून के सही सिद्धांतों को लागू करने में बहुत सावधान और सतर्क रहना चाहिए। अन्यथा यह धारणा बन सकती है कि दोषसिद्धि कानूनी नहीं, बल्कि नैतिक है।