सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में एक ऐसे व्यक्ति को निर्दोष साबित किया है जो मात्र 300 रुपये की घूसखोरी का आरोप 18 साल से अपने सिर पर ढो रहा था। ट्रायल कोर्ट ने 2005 में उसे रिश्वत लेने का दोषी ठहराया दिया था।
न्यायमूर्ति अभय एस ओका और न्यायमूर्ति राजेश बिंदल की पीठ ने कहा कि इस मामले में घूस मांगने का कोई सबूत नहीं है। साथ ही ऐसा कोई तथ्य नहीं है जिसे स्वीकार किया जाए और भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के तहत सजा दी जाए।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा, “उच्च न्यायालय ने इस धारणा पर अपना फैसला पारित किया है कि अपीलकर्ता से पैसा वसूल किया गया था। पैसा वसूलना और घूस मांगना दोनों अलग है। यह ऐसा मामला नहीं है जहां घूस की मांग को साबित करने के लिए परिस्थितिजन्य साक्ष्य उपलब्ध हों।
दरअसल, याचिकाकर्ता ने सुप्रीम कोर्ट से 2010 के पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ अपील की थी। जिसमें हाईकोर्ट ने 2005 में दिए गए सेशन कोर्ट के फैसले को यथावत रखा गया था और उसे भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के तहत दोषी ठहरा दिया गया था।
याचिकाकर्ता पर आरोप था कि घटना 2003 में मृत्यु प्रमाण पत्र बनाने के लिए कथित रूप से 300 रुपये की रिश्वत मांगी थी। यह भी आरोप था कि एक विजिलेंस टीम ने घूस में दिए गए नोटों पर कैमिकल लगाया था और उसे कथित रूप से रंगे हाथ पकड़ा था।
याचिकाकर्ता ने कहा कि वो संबंधित कार्यालय में एक सफाईकर्मी था। उसके पास मृत्यु प्रमाण पत्र बनाने या जारी करने का अधिकार ही नहीं था तो वो उसके रिश्वत किस आधार पर वसूल सकता था।
पंजाब सरकार के वकील ने कहा कि मामले में रिश्वत मांगने का अनुमान लगाया जा सकता है।
शीर्ष अदालत ने कहा कि ऐसा लगता है कि यह मामला व्यक्तिगत रंजिश का है क्योंकि कि ट्रायल कोर्ट ने भी स्वीकार किया कि अभियुक्त द्वारा पैसे मांगने का कोई सबूत नहीं था। इसके अलावा, जब पैसा कथित तौर पकिया गया था वो आरोपी ने मांगा नहीं था। नतीजतन, अपील मंजूर की गई, और सजा को खत्म कर दिया गया। मगर, एक निर्दोष को न्याय के लिए 18 साल इंतजार करना पड़ा।