सुप्रीम कोर्ट ने 2008 के हत्या के एक मामले में दोषी ठहराए गए एक व्यक्ति को बरी करते हुए कहा है कि अगर किसी घटना का कोई चश्मदीद गवाह नहीं है तो अभियोजन पक्ष को अपराध करने का मकसद स्थापित करना होगा। अगर अभियोजन पक्ष ऐसा नहीं करता है तो आरोपित को दोषी नहीं ठहराया जा सकता।
न्यायमूर्ति विक्रम नाथ और अहसानुद्दीन अमानुल्लाह की पीठ ने कहा कि सभी गवाहों ने कहा है कि याचिकाकर्ता और मृतक के बीच कोई दुश्मनी नहीं थी।
पीठ ने कहा, “एक बार जब घटना का कोई चश्मदीद गवाह नहीं होता है, तो अभियोजन पक्ष को अपराध के लिए एक मकसद स्थापित करना होगा।
कोर्ट ने आगे कहा कि , ”अगर कोई मकसद स्थापित नहीं है या साबित नहीं हुआ है और किसी ने भी घटना को नहीं देखा है तो मकसद की एक महत्वपूर्ण भूमिका है।”
छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय के एक आदेश को चुनौती देने वाले एक व्यक्ति की याचिका पर सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने ये टिप्पणियां की हैं। जिसमें भारतीय दंड संहिता की धारा 302 (हत्या) के तहत उसकी दोषसिद्धि की पुष्टि की गई और जुर्माने के साथ आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई थी।
अभियोजन पक्ष के अनुसार, मृतक के चाचा ने शिकायत दर्ज कराई थी कि जब उसका भतीजा घर लौट रहा था तो अपीलकर्ता ने उसके साथ मारपीट की। उसने दावा किया कि जब वह घटनास्थल पर पहुंचा तो उसने आरोपी को भागते देखा और हत्या का हथियार वहां पड़ा हुआ था।
शीर्ष अदालत ने कहा कि मृतक के चाचा की गवाही विश्वसनीय नहीं थी और यह दोषसिद्धि का आधार नहीं बन सकती थी।
शीर्ष कोर्ट ने अपने आदेश में कहा पत्रावली पर उपलब्ध साक्ष्यों से पता चलता है वह जाहिर तौर पर एक सरपंच से प्रभावित था, जिसकी घटना के बाद की कार्यवाही में सक्रिय भागीदारी से इनकार नहीं किया जा सकता है।
अदालत ने कहा, “चिकित्सीय साक्ष्य, अभियोजन पक्ष की स्टोरी का समर्थन नहीं करते क्योंकि हमले के हथियार से मृतक को चोट नहीं पहुंची, जैसा कि पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट में देखा गया है।”
पीठ ने कहा, ”इस बात का कोई मकसद नहीं था कि अपीलकर्ता बिना किसी कारण के किसी परिचित और दोस्त की हत्या क्यों करेगा। बचाव पक्ष का कहना है कि मृतक शराब के नशे में था और फिसल कर किसी नुकीली चीज से गिर गया होगा, जिसके परिणामस्वरूप पोस्टमार्टम में चोट लगने की बात सामने आई है।”