दिल्ली उच्च न्यायालय ने हाल के एक फैसले में आपराधिक न्याय प्रणाली में दूसरे पक्ष को परेशान करने और डराने-धमकाने के लिए उपकरणों के रूप में बच्चों के इस्तेमाल की “कड़ी निंदा” की है, साथ ही वैवाहिक लड़ाई जीतने के लिए गंभीर आरोप लगाने की “बढ़ती प्रवृत्ति” पर भी चिंता जाहिर की है।
अदालत ने शिकायतकर्ता मां और उससे अलग रह रही पत्नी के साथ समझौते के आधार पर एक पिता के खिलाफ पॉस्को अधिनियम के तहत एक मामले को रद्द करते हुए उपरोक्त टिप्पणियां कीं है।
न्यायमूर्ति दिनेश कुमार शर्मा ने कहा कि, विवाद पक्षों के बीच वैवाहिक कलह के कारण उत्पन्न हुआ, जिसके परिणामस्वरूप पति के खिलाफ मानसिक और शारीरिक उत्पीड़न, क्रूरता, दहेज की मांग आदि और अपनी बेटी के निजी अंग को अनुचित तरीके से छूने के लिए दो एफआईआर दर्ज की गईं।
आपसी तलाक के बाद पक्षों के बीच समझौते के मद्देनजर, अदालत ने फैसला सुनाया कि उन मामलों को जारी रखने से कोई उपयोगी उद्देश्य पूरा नहीं होगा जब शिकायतकर्ता उन्हें आगे बढ़ाने की इच्छा नहीं रखता था।
उच्च न्यायलय ने आदेश मैं कहा कि “यह अदालत केवल वैवाहिक लड़ाई जीतने के लिए पार्टियों में एक-दूसरे पर गंभीर आरोप लगाने की बढ़ती प्रवृत्ति को स्वीकार करती है और बच्चों को सेट करने के साधन के रूप में इस्तेमाल किए जाने की प्रथा की दृढ़ता से निंदा करती है।”
अदालत ने अपने आदेश में यह भी कहा की आपराधिक न्याय केवल दूसरे पक्ष को परेशान करने या डराने-धमकाने के लिए चल रहा है। जैसा भी हो, 482 सीआरपीसी के तहत इस न्यायालय के पास न्याय के उद्देश्य को सुरक्षित करने या अदालत की प्रक्रिया के दुरुपयोग को रोकने के लिए किसी भी आपराधिक कार्यवाही को रद्द करने का अंतर्निहित अधिकार क्षेत्र है।
आदेश में, अदालत ने कहा कि विवाह से पैदा हुए बच्चे कानून के अनुसार अपने कानूनी अधिकारों का पालन करने के लिए स्वतंत्र होंगे।