बार काउंसिल ऑफ दिल्ली (बीसीडी) के उपाध्यक्ष, सचिव और दो सदस्यों ने संयुक्त रूप से केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह को एक पत्र लिखा है, जिसमें उनसे तीन प्रस्तावित आपराधिक कानूनों के कार्यान्वयन पर पुनर्विचार करने का आग्रह किया गया है। ताकि कानून के लागू होने के बाद अराजकता की स्थिति पैदा न हो।
1 जुलाई से लागू होेने जा रहे ये कानून वर्तमान भारतीय दंड संहिता, आपराधिक प्रक्रिया संहिता और भारतीय साक्ष्य अधिनियम को प्रतिस्थापित करेंगे। अपने पत्र में बार काउंसिल के प्रतिनिधि उपाध्यक्ष संजीव नासियार, सचिव कुमार मुकेश, पूर्व अध्यक्ष और सदस्य केसी मित्तल और पूर्व उपाध्यक्ष और सदस्य हिमाल अख्तर ने गंभीर चिंता व्यक्त की है। बार के इन पदाधिकारियों ने कहा है कि सरकार को नए आपराधिक कानूनोंं के स्थान पर जस्टिस मालीमथ कमेटी की सिफारिशों पर गौर करना चाहिए था। नए कानूनों में भ्रम कहीं भ्रम की स्थिति है तो कहीं पुलिस को ऐसे अधिकार दे दिए गए हैं जिनसे ह्युमन राइट्स का उल्लंघन होता है।
उदाहरण के तौर पर, अभी तक लागू कानूनों के अनुसार किसी भी आरोपी की पुलिस रिमांड अधिकतम 15 दिन के लिए स्वीकार्य है। जबकि नये कानूनों में इसको 60 से 90 दिन कर दिया गया है। इससे आरोपी के उत्पीड़न की आशंकाएं बहुत बढ़ जाती हैं। इसी तरह हथकड़ी लगाने का अधिकार पुलिस को दिए जाने से आरोपी की व्यक्तिगत प्रतिष्ठा पर सवाल खड़े हो सकते हैं।
बार काउंसिल ऑफ दिल्ली के पदाधिकारियों ने यह भी कहा है कि नए कानूनों का प्रतिपादन करने के स्थान पुलिस एक्ट और पुलिसिंग में सुधार की आवश्यकता है। ताकि त्वरित और निष्पक्ष इन्वेस्टिगेशन हो और पीड़ित को शीघ्र न्याय मिले। साथ ही किसी निर्दोष के उत्पीड़न की संभावनाएं भी कम रहें। उन्होंने कहा कि नए कानूनों से देश में पुलिस राज कायम होने की आशंकाएं ज्यादा हैं।
इसी तरह से सॉलिटरी कन्फाइनमेंट पर सवाल उठाते हुए कहा गया है कि नए कानून की धारा 11 के तहत तन्हाई सजा का प्रावधान कर दिया गया है। जबकि सुनील बत्रा बनाम दिल्ली प्रशासन के केस में सुप्रीम कोर्ट ने सॉलिटरी कन्फाइनमेंट को बर्बर और अमानवीय करार दिया है।
इसी तरह कम्युनिटी सर्विस, संगठित अपराध, मॉब लिंचिंग, आतंकी वारदात, रोड एक्सीडेंट, राष्ट्रीय एकता-अखण्डता के प्रति अपराध, भ्रामक और झूठी खबरों-सूचनाओं का प्रकाशन, वीडियो ट्रॉयल जैसे तमाम मुद्दों की अप्रासंगिकता पर बार पदाधिकारियों ने सवाल उठाए हैं।
उन्होंने कहा है कि वे कानून के शासन के मूल सिद्धांत पर जोर देते हैं, निष्पक्ष और निष्पक्ष जांच के आधार पर उत्पीड़न पर अभियोजन के महत्व पर जोर देते हैं। हालाँकि, उन्हें डर है कि प्रस्तावित संशोधन इस सिद्धांत से समझौता कर सकते हैं, संभावित रूप से कानून प्रवर्तन द्वारा अनियंत्रित अधिकार का मार्ग प्रशस्त कर सकते हैं, संवैधानिक सिद्धांतों के पालन के बजाय पुलिस राज के समान परिदृश्य की ओर बढ़ सकते हैं।
पत्र में भाषाई विसंगतियों पर प्रकाश डाला गया है, जिसमें हिंदी और अंग्रेजी के मिश्रण के साथ-साथ कुछ कानूनी प्रावधानों में बदलाव या चूक शामिल है, जो समय के साथ कानूनी ढांचे में गहराई से अंतर्निहित हो गए हैं।
इसके अलावा, प्रतिनिधियों ने आशंका व्यक्त की है कि इन नए कानूनों के कार्यान्वयन के लिए न्यायाधीशों, वकीलों, पुलिस कर्मियों और आम जनता को जमीनी स्तर से ऊपर तक व्यापक पुन:शिक्षा की आवश्यकता होगी। उनका तर्क है कि इससे कानूनी सिद्धांतों और परिचालन चुनौतियों में दैनिक व्यवधान पैदा हो सकता है, जिससे कानूनी कार्यवाही में अराजकता बढ़ सकती है।