सुप्रीम कोर्ट ने आरोपियों की रिहाई की निरस्त कर दी है। ध्यान रहे गुजरात सरकार ने 15 अगस्त 2022 को सभी को रिहा कर दिया था। सुप्रीम कोर्ट ने सभी दोषियों को दो सप्ताह के भीतर आत्मसमर्पण के निर्देश भी दिए हैं।
जब गुजरात सरकार ने इन 11 लोगों की रिहाई के आदेश दिए थे तो देशभर में इसका खूब विरोध हुआ था। इसके बाद यह मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा। सुप्रीम कोर्ट में 17 अक्टूबर को गुजरात सरकार ने एक हलफनामा दायर 11 लोगों की रिहाई का कारण बताया।
राज्य सरकार की ओर से कहा गया कि इस साल 13 मई को सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया था कि इन लोगों की रिहाई के लिए 1992 में बनी पुरानी नीति लागू होगी। उस नीति में 14 साल जेल में बिताने के बाद उम्र कैद से रिहा करने की व्यवस्था है। यह सभी लोग 14 साल से अधिक जेल में रहे हैं, इसलिए जरूरी कानूनी प्रक्रिया का पालन करने के बाद इनकी रिहाई की गई। इसके लिए केंद्र सरकार की अनुमति भी ली गई थी।
गोधरा ट्रेन में आग लगाने की घटना के बाद हुई सांप्रदायिक हिंसा के दौरान बिलकिस का बेरहमी से सामूहिक बलात्कार किया गया था। उस समय वह 21 साल की थी और पांच महीने की गर्भवती थी। उसके परिवार के सात सदस्यों की दंगाइयों ने हत्या कर दी थी।
28 फरवरी, 2002 को गोधरा स्टेशन पर पिछले दिन की घटना के बाद राज्य में हिंसा भड़क गई। इसके बाद, बिलकिस दाहोद जिले के राधिकपुर गांव से भाग गई। बिलकिस के साथ उसकी बेटी सालेहा, जो उस समय साढ़े तीन साल की थी, और उनके परिवार के 15 अन्य सदस्य थे।
3 मार्च 2002 को परिजन छप्परवाड़ गांव पहुंचे। चार्जशीट के मुताबिक, उन पर हंसिया, तलवार और लाठियों से लैस करीब 20-30 लोगों ने हमला किया था। हमलावरों में 11 आरोपी युवक भी थे। यहीं पर बिलकिस, उसकी मां और तीन अन्य महिलाओं के साथ बलात्कार किया गया और उन्हें बेरहमी से पीटा गया। राधिकपुर गांव के मुसलमानों के 17 सदस्यीय समूह में से आठ मृत पाए गए और छह लापता थे। हमले में केवल बिलकिस, एक आदमी और एक तीन साल का बच्चा बच गया था।
बलात्कार के बाद कम से कम तीन घंटे तक बिलकिस बेहोश रही। होश में आने के बाद उसने एक आदिवासी महिला से कपड़े उधार लिए और एक होमगार्ड से मिली जो उसे लिमखेड़ा पुलिस स्टेशन ले गया। उसने हेड कांस्टेबल सोमाभाई गोरी के पास शिकायत दर्ज कराई, जिसने सीबीआई के अनुसार, “भौतिक तथ्यों को दबाया और उसकी शिकायत का एक विकृत और छोटा संस्करण लिखा।”
सीबीआई ने अपनी जांच में पाया कि आरोपी को बचाने के लिए पोस्टमार्टम सही से नहीं किया गया था। सीबीआई जांचकर्ताओं ने हमले में मारे गए लोगों के शव निकाले और कहा कि सात शवों में से किसी में भी खोपड़ी नहीं थी। सीबीआई के मुताबिक पोस्टमार्टम के बाद लाशों के सिर काट दिए गए थे, ताकि शवों की शिनाख्त न हो सके।
बिलकिस बानो को जान से मारने की धमकी मिलने के बाद मुकदमे को गुजरात से बाहर महाराष्ट्र ले जाया गया। मुंबई की अदालत में छह पुलिस अधिकारियों और एक सरकारी डॉक्टर सहित 19 लोगों के खिलाफ आरोप दायर किए गए थे।
जनवरी 2008 में एक विशेष अदालत ने 11 आरोपियों को बिलकिस बानो बलात्कार मामले में दोषी ठहराया। कोर्ट ने सभी 11 दोषियों को उम्रकैद की सजा सुनाई। हेड कांस्टेबल को आरोपी को बचाने के लिए “गलत रिकॉर्ड बनाने” का दोषी ठहराया गया था। इसी के साथ अदालत ने सबूतों के अभाव में सात लोगों को बरी कर दिया। सुनवाई के दौरान एक व्यक्ति की मौत हो गई।
बिलकिस बानो मामला 2017 के मई महीने में एक बार फिर सुर्खियों में आया। उस समय बॉम्बे हाईकोर्ट ने सामूहिक बलात्कार मामले में 11 लोगों की दोषसिद्धि और आजीवन कारावास को बरकरार रखा और पुलिसकर्मियों और डॉक्टरों सहित सात लोगों को बरी कर दिया। इसके बाद, अप्रैल 2019 में सुप्रीम कोर्ट ने गुजरात सरकार को बिलकिस को दो सप्ताह के भीतर मुआवजे के रूप में 50 लाख रुपये देने का निर्देश दिया। हालांकि, बिलकिस बानो ने मुआवजे को स्वीकार करने से इनकार कर दिया था।
बिलकिस बानो रेप केस में सजा काट रहे 11 दोषियों को गुजरात सरकार ने 15 अगस्त को रिहा कर दिया। इनकी रिहाई के बाद सीपीएम नेता सुभाषिनी अली, सामाजिक कार्यकर्ता रूपरेखा वर्मा, रेवती लाल और तृणमूल कांग्रेस की नेता महुआ मोइत्रा ने आदेश को रद्द करने की मांग करते हुए सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल की। वहीं अब गुजरात सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में रिहाई को लेकर जवाब दाखिल कर दिया है। गुजरात सरकार का कहना है कि यह सभी लोग जेल में 14 साल से अधिक समय बिता चुके हैं। 1992 के नियमों में उम्र कैद की सजा पाए कैदियों की 14 साल बाद रिहाई की बात कही गई थी। जबकि 2014 में लागू नए नियमों में जघन्य अपराध के दोषियों को इस छूट से वंचित किया गया है।
दरअसल, रिहाई के बाद जब यह 11 लोग जेल से बाहर आए तो कुछ लोगों ने इनका ‘तिलक लगाकर, माला पहनाकर’ किसी हीरो की तरह स्वागत किया। इसकी तस्वीरें सोशल मीडिया पर खूब तेजी से वायरल हो गईं। अधिकतर लोगों ने इसका विरोध किया और विपक्षी नेताओं ने भी गुजरात सरकार की मंशा पर सवाल खड़े किए।