महाराष्ट्र के शिंदे बनाम उद्धव विवाद पर सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ बुधवार को फ़ैसला सुनाएगी। चीफ जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली बेंच ने 9 दिनों तक दोनों पक्षों और राज्यपाल कार्यालय के वकीलों को सुना था। इस दौरान उद्धव कैंप के वकीलों ने शिंदे की बगावत और उनकी सरकार के गठन को गैरकानूनी बताया दूसरी तरफ शिंदे खेमे ने कहा कि विधायक दल में टूट के बाद राज्यपाल ने फ्लोर टेस्ट का आदेश देकर सही किया था।
मामले की सुनवाई के दौरान राज्यपाल कार्यालय के लिए पेश सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा था, “एक गठबंधन में चुनाव लड़ने के बाद दूसरे गठबंधन के साथ सरकार बनाने से शिवसेना में आंतरिक मतभेद था। यही पार्टी में टूट की वजह भी बना.”
कोर्ट ने इस बात पर भी सवाल उठाया कि अगर शिवसेना में विधायकों ने नेतृत्व के खिलाफ विद्रोह किया या आवाज उठाई, तो इस पर राज्यपाल ने क्यों दखल दिया? उन्होंने फ्लोर टेस्ट का आदेश क्यों दे दिया?
आखिर क्या है पूरा मामला?
साल 2022 में शिवसेना के वरिष्ठ नेता एकनाथ शिंदे के नेतृत्व में में विधायकों की बगावत के बाद मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे को इस्तीफा देना पड़ा था। इस इस्तीफ़े के बाद एक नाथ शिंदे के नेतृत्व में नई सरकार का गठन हुआ। इस पूरे घटनाक्रम के दौरान जून और जुलाई, 2022 में कई याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट में दाखिल की गई थी अगस्त में यह मामला संविधान पीठ को सौंपा गया था। 5 जजों की संविधान पीठ ने एम नाथ शिंदे कैंप के विधायकों की अयोग्यता, सरकार बनाने के लिए शिंदे को मिले निमंत्रण, नए स्पीकर के चुनाव जैसे कई मामलों पर उद्धव गुट की तरफ से उठाए गए सवालों पर विचार किया।
स्पीकर के अधिकार पर उठा सवाल
इस मामले में सबसे पहली याचिका एकनाथ शिंदे ने ही दाखिल की थी।इस याचिका में दावा किया गया था कि विधानसभा के डिप्टी स्पीकर ने उनके गुट के विधायकों को अयोग्यता का जो नोटिस भेजा है, वह गलत है। शिंदे ने कहा था कि डिप्टी स्पीकर को पद से हटाने का प्रस्ताव पहले ही भेजा जा चुका था, ऐसे में संविधान पीठ के नबाम रेबिया मामले में आए फैसले के चलते वह विधायकों के खिलाफ अयोग्यता की कार्यवाही नहीं कर सकते।
उद्धव ठाकरे के इस्तीफे से बदली स्थिति
सुप्रीम कोर्ट ने मामले की सुनवाई के दौरान डिप्टी स्पीकर के अधिकार पर विचार करने की बात करते हुए उन्हें फैसला लेने से रोक दिया था। इस बीच राजनीतिक घटनाक्रम महाराष्ट्र में लगातार बदलता रहा। तबराज्यपाल ने मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे को सदन में बहुमत साबित करने के लिए कह दिया,लेकिन उद्धव ने बहुमत परीक्षण से पहले इस्तीफा दे दिया। जिसके बाद राज्यपाल ने एकनाथ शिंदे को सरकार बनाने का मौका दिया।शिंदे ने अपने समर्थक विधायकों और बीजेपी के सहारे सदन में बहुमत साबित कर दिया।
उद्धव कैंप की संविधान पीठ में मुख्य दलीलें?
उद्धव कैंप की तरफ से वरिष्ठ वकीलों अभिषेक मनु सिंघवी, कपिल सिब्बल और देवदत्त कामत ने बहस की। उद्धव कैंप ने कहा कि पार्टी की तरफ से बुलाई गई बैठक में शामिल न होकर शिंदे समर्थक विधायकों ने व्हिप का उल्लंघन किया, इसलिए वह विधायक बने रहने के अयोग्य हो गए थे, लेकिन कोर्ट के दखल के चलते उनकी सदस्यता बनी रही।
और बाद में राज्यपाल ने इसी आधार पर बहुमत परीक्षण के लिए कह दिया, यह गलत था।बहस के अंत में उद्धव पक्ष के वकील कपिल सिब्बल ने यह भी कहा था कि गठबंधन के आधार पर बनी सरकार की किसी एक पार्टी में हुई टूट फ्लोर टेस्ट का आधार नहीं हो सकती थी। राज्यपाल को इसका फ्लोर टेस्ट आदेश तभी देना चाहिए था, जब कोई पार्टी समर्थन वापस ले लेती।
शिंदे गुट की संविधान पीठ में दलील
शिंदे खेमे का पक्ष वरिष्ठ वकील नीरज किशन कौल, हरीश साल्वे, मनिंदर सिंह और महेश जेठमलानी ने रखा था।शिंदे कैंप के वकीलों ने जवाब में कहा कि अपनी पार्टी के विधायकों के बहुमत का समर्थन गंवा चुके उद्धव ठाकरे गैरकानूनी तरीके से सत्ता में बने रहने की कोशिश कर रहे थे। जबकि शिंदे विधायक दल के नेता थे। उनकी जानकारी के बिना विधायक दल की बैठक बुला ली गई।इसमें 49 में से सिर्फ 16 विधायक शामिल हुए। इस बैठक में न जाना अयोग्यता का आधार तो कतई नहीं हो सकता।विधायकों का बहुमत पहले ही मुख्य सचेतक को बदल चुका था।पद से हटाए जा चुके सचेतक के व्हिप का कोई कानूनी महत्व नहीं था। शिंदे पक्ष के वकील नीरज किशन कौल ने बोम्मई मामले के फैसले का भी हवाला देते हुए कहा था “बोम्मई फैसला साफ कहता है कि पार्टी में टूट पर भी राज्यपाल बहुमत परीक्षण का निर्देश दे सकते हैं.”
राज्यपाल कार्यालय ने संविधान पीठ में क्या कहा?
राज्यपाल कार्यालय के लिए वरिष्ठ वकील और सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता पेश हुए थे। राज्यपाल कार्यालय की तरफ से कहा गया कि सरकार के बहुमत पर संदेह होने पर उसे फ्लोर टेस्ट के लिए कहना संविधान के अनुच्छेद 175 (2) के तहत राज्यपाल का कर्तव्य है। उन्होंने यही किया था। अगर वह ऐसा नहीं करते तो दूसरा कदम यही हो सकता था कि वह अनुच्छेद 356 के तहत राज्य (महाराष्ट्र) में राष्ट्रपति शासन की सिफारिश कर देते।
अब स्थितियां बदल चुकी है
एक नाथ शिंदे की बगावत से लेकर और उनके मुख्यमंत्री बनने के बाद अब महाराष्ट्र की राजनीतिक परिस्थितियां काफी बदल चुकी हैं। इस वक्त बीजेपी के समर्थन से शिंदे की बहुमत वाली सरकार महाराष्ट्र में है।चुनाव आयोग भी फैसला दे चुका है कि शिंदे की शिवसेना ही असली शिवसेना है।हालांकि एकनाथ शिंदे सरकार को तभी खतरा हो सकता है जब संविधान पीठ यह तय कर दे कि जिस समय शिंदे और उनके विधायकों ने सरकार बनाई, उस समय वह विधानसभा की सदस्यता के अयोग्य थे। अगर संविधान पीठ उन्हें अयोग्य करार देती है तो एकनाथ शिंदे की सरकार और उनके राजनीतिक पर संकट खड़ा हो जाएगा और महाराष्ट्र की राजनीति में एक बार फिर जोड़ तोड़ की सियासत तेज होगी।