सुप्रीम कोर्ट मंगलवार को अहम फैसला सुनाने जा रहा है जिसमें कोर्ट को यह तय करना है की क्या जन प्रतिनिधियों (मंत्री, सांसद, विधायक) की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध लगाया जा सकता है?
सुप्रीम कोर्ट यह तय कर सकता है की मंत्रियों, सांसदों और विधायकों को किसी आपराधिक मामले पर गैरजिम्मेदाराना बयान देने से रोकने के लिए दिशानिर्देश बनाने चाहिए या नहीं?
जस्टिस अब्दुल नजीर के नेतृत्व में सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने सभी पक्षों की दलीलें सुनने के बाद आदेश सुरक्षित रख लिया था। जस्टिस नजीर के अलावा बेंच के अन्य जज जस्टिस बीआर गवई, एएस बोपन्ना, वी रामसुब्रमण्यम और बीवी नागरत्ना थे।
अदालत सार्वजनिक पदाधिकारियों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से संबंधित मुद्दों पर विचार कर रही थी। इस मामले में यह शामिल है कि क्या कोई मंत्री केंद्र सरकार की कानून और नीति के खिलाफ बोलने के लिए भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार का दावा कर सकता है।
मामले की सुनवाई के दौरान भारत के महान्यायवादी आर वेंकटरमणि ने सुनवाई के दौरान कहा कि इस मामले में पूछे गए सवाल भौतिक नहीं हैं।
याचिकाकर्ता की ओर से पेश अधिवक्ता कलीस्वरम राज ने कहा कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मामले में सार्वजनिक पदाधिकारियों के तत्व की कमी इसी तरह के किसी अन्य मामले में रही है। अभद्र भाषा का फैसला कभी भी कोर्ट की किसी बेंच ने नहीं किया।
याचिकाकर्ता ने याचिका का हवाला देते हुए कहा था कि पीड़ित लड़की का पिता होने के कारण उत्तर प्रदेश राज्य में निष्पक्ष जांच प्रक्रिया से उनका मोहभंग हो गया है।
दरसअल बुलंदशहर की एक बलात्कार पीड़िता के पिता द्वारा दायर याचिका पर 2016 में मामले को एक बड़ी पीठ के पास भेजा गया था, जहां यह आरोप लगाया गया था कि राज्य के मंत्री और प्रमुख राजनीतिक व्यक्तित्व (आजम खान) ने पूरी घटना को “केवल राजनीतिक साजिश और कुछ नहीं” के रूप में करार दिया था।बाद में, आजम खान ने सामूहिक बलात्कार को “राजनीतिक साजिश” कहने के लिए माफी मांगी थी, जिसे अदालत ने स्वीकार कर लिया था। लेकिन मामले के अन्य पहलुओं को देखते हुए सुनवाई को जारी रखा था