इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अपने एक फैसले में कहा है कि यदि अदालतें तलाक कानून के ढांचे के भीतर वैवाहिक संबंधों में छोटे-मोटे झगड़ों को “क्रूरता” के रूप में व्याख्या करती हैं, तो पति-पत्नी में से किसी एक की ओर से वास्तविक क्रूरता के अभाव में भी कई विवाह टूटने का खतरा हो सकता है।
यह टिप्पणी न्यायमूर्ति सौमित्र दयाल सिंह और न्यायमूर्ति शिव शंकर प्रसाद की पीठ ने की है। पीठ ने रोहित चतुवेर्दी द्वारा दायर तलाक की याचिका पर सुनवाई करते हुए तलाक की याचिका को सीधे मंजूरी देने के बजाय अलग हुए जोड़े को न्यायिक रूप से अलग करने का निर्देश दिया है।
तलाक का मामला, मूल रूप से अतिरिक्त प्रधान न्यायाधीश (पारिवारिक न्यायालय), गाजियाबाद द्वारा हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 13 के तहत खारिज कर दिया गया था, जिसे रोहित चतुर्वेदी ने चुनौती दी थी। अपीलकर्ता ने अपनी पत्नी नेहा चतुर्वेदी पर क्रूरता का आरोप लगाते हुए तलाक की मांग की, जिसके साथ उसने 2013 में विवाह किया था।
फैमिली कोर्ट एक्ट, 1984 की धारा 19 के तहत अपील में, रोहित ने तर्क दिया कि उसकी पत्नी ने उनकी शादी को पूरा करने से इनकार कर दिया था, उसके माता-पिता के साथ झगड़े में लगी हुई थी, उस पर झूठा चोर लेबल लगाकर उसके खिलाफ भीड़ को उकसाया और दहेज का मामला दायर किया। हालाँकि यह जोड़ा जुलाई 2014 तक एक साथ रहा, लेकिन उसके बाद उन्होंने साथ रहना बंद कर दिया था।
पत्नी ने रोहित पर अपनी भाभी के साथ विवाहेतर संबंध का आरोप लगाते हुए प्रतिवाद किया था। पारिवारिक अदालत ने तलाक की याचिका खारिज कर दी, जिसके बाद रोहित ने मामला उच्च न्यायालय में उठाया था।
उच्च न्यायालय ने इस बात पर जोर दिया कि छोटी घटनाओं और विवादों को “क्रूरता” मानने से कई विवाह टूट सकते हैं। वैवाहिक क्रूरता के रूप में अर्हता प्राप्त करने के लिए, सुलह प्रयासों में बाधा डालने के लिए कार्य पर्याप्त रूप से गंभीर होना चाहिए। अदालत ने यह भी कहा कि पत्नी का अफेयर का आरोप पूरी तरह से रोहित द्वारा अपनी भाभी और उसके बच्चों के साथ एक कमरा साझा करने पर आधारित था, जिसे अवैध संबंध का अनुमान लगाने के लिए अपर्याप्त माना गया है।
पति-पत्नी के बीच गंभीर विवादों, वैवाहिक पूर्णता की अनुपस्थिति और सुलह की सीमित संभावनाओं को स्वीकार करते हुए, अदालत ने विवाह के पूर्ण विघटन के बजाय न्यायिक अलगाव का विकल्प चुना है।